धर्म पर आग्रह Way to Religious
1.
मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे वही अमेय ।
उससे बढ़ कर जीव को, है क्या कोई श्रेय ॥
2
बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न कुछ भी श्रेय ।
भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ अश्रेय ॥
3
यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त ही कर्म ।
तन से मन से वचन से, सर्व रीती से धर्म ।
4
मन का होना मल रहित, इतना ही है धर्म ।
बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के कर्म ॥
5
क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन ये चार ।
इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म का सार ॥
6
'बाद करें मरते समय', सोच न यों, कर धर्म ।
जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी है धर्म ॥
7
धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये प्रमाण ।
शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से तू जान ॥
8
बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो यदि धर्म ।
जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप वह धर्म ॥
9
धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही सुख-लाभ ।
अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति का लाभ ॥
10
करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही मान ।
निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय ही जान ॥
मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे वही अमेय ।
उससे बढ़ कर जीव को, है क्या कोई श्रेय ॥
2
बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न कुछ भी श्रेय ।
भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ अश्रेय ॥
3
यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त ही कर्म ।
तन से मन से वचन से, सर्व रीती से धर्म ।
4
मन का होना मल रहित, इतना ही है धर्म ।
बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के कर्म ॥
5
क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन ये चार ।
इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म का सार ॥
6
'बाद करें मरते समय', सोच न यों, कर धर्म ।
जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी है धर्म ॥
7
धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये प्रमाण ।
शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से तू जान ॥
8
बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो यदि धर्म ।
जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप वह धर्म ॥
9
धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही सुख-लाभ ।
अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति का लाभ ॥
10
करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही मान ।
निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय ही जान ॥
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