मिथ्याचार Avoid wrong work

1
वंचक के आचार को, मिथ्यापूर्ण विलोक ।
पाँचों भूत शरीरगत, हँस दे मन में रोक ॥


2
उच्च गगन सम वेष तो, क्या आवेगा काम ।
समझ- बूंझ यदि मन करे, जो है दूषित काम ॥


3
महा साधु का वेष धर, दमन-शक्ति नहिं, हाय ।
व्याघ्र-चर्म आढे हुए, खेत चरे ज्यों गाय ॥


4
रहते तापस भेस में, करना पापाचार ।
झाड़-आड़ चिड़िहार ज्यों, पंछी पकड़े मार ॥


5
‘हूँ विरक्त’ कह जो मनुज, करता मिथ्याचार ।
कष्ट अनेकों हों उसे, स्वयं करे धिक्कार ॥


6
मोह-मुक्त मन तो नहीं, है निर्मम की बान ।
मिथ्याचारी के सदृश, निष्ठुर नहीं महान ॥


7
बाहर से है लालिमा, हैं घुंघची समान ।
उसका काला अग्र सम, अन्दर है अज्ञान ॥


8
नहा तीर्थ में ठाट से, रखते तापस भेस ।
मित्थ्याचारी हैं बहुत, हृदय शुद्ध नहिं लेश ॥


9
टेढ़ी वीणा है मधुर, सीधा तीर कठोर ।
वैसे ही कृति से परख, किसी साधु की कोर ॥


10
साधक ने यदि तज दिया, जग-निन्दित सब काम ।
उसको मुंडा या जटिल, बनना है बेकाम ॥

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