अनसूयता Open minded
1
जलन- रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान ।
अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान ॥
2
सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या- मुक्त ।
तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त ॥
3
धर्म- अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह ।
पर-समृद्धि से खुश न हो, करता है वह डाह ॥
4
पाप- कर्म से हानियाँ, जो होती है जान ।
ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप- कर्म धीमान ॥
5
शत्रु न भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि ।
जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि ॥
6
दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार ।
रोटी कपडे को तरस, मिटते लगे न बार ॥
7
जलनेवाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन ।
अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन ॥
8
ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश ।
नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानास ॥
9
जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार ।
तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार ॥
10
सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त ।
सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त ॥
जलन- रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान ।
अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान ॥
2
सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या- मुक्त ।
तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त ॥
3
धर्म- अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह ।
पर-समृद्धि से खुश न हो, करता है वह डाह ॥
4
पाप- कर्म से हानियाँ, जो होती है जान ।
ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप- कर्म धीमान ॥
5
शत्रु न भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि ।
जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि ॥
6
दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार ।
रोटी कपडे को तरस, मिटते लगे न बार ॥
7
जलनेवाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन ।
अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन ॥
8
ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश ।
नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानास ॥
9
जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार ।
तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार ॥
10
सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त ।
सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त ॥
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