कर्म शुद्धि Purify our did

1
साथी की परिशुद्धता, दे देती है प्रेय ।
कर्मों की परिशुद्धता, देती है सब श्रेय ॥


2
सदा त्यागना चाहिये, जो हैं ऐसे कर्म ।
कीर्ति-लाभ के साथ जो, देते हैं नहिं धर्म ॥


3
‘उन्नति करनी चाहिये’, यों जिनको हो राग ।
निज गौरव को हानिकर, करें कर्म वे त्याग ॥


4
यद्यपि संकट-ग्रस्त हों, जिनका निश्चल ज्ञान ।
निंद्य कर्म फिर भी सुधी, नहीं करेंगे जान ॥


5
जिससे पश्चात्ताप हो, करो न ऐसा कार्य ।
अगर किया तो फिर भला, ना कर ऐसा कार्य ॥


6
जननी को भूखी सही, यद्यपि देखा जाय ।
सज्जन-निन्दित कार्य को, तो भी किया न जाय ॥


7
दोष वहन कर प्राप्त जो, सज्जन को ऐश्वर्य ।
उससे अति दारिद्रय ही, सहना उसको वर्य ॥


8
वर्ज किये बिन वर्ज्य सब, जो करता दुष्कर्म ।
कार्य-पूर्ति ही क्यों न हो, पीड़ा दें वे कर्म ॥


9
रुला अन्य को प्राप्त सब, रुला उसे वह जाय ।
खो कर भी सत्संपदा, पीछे फल दे जाय ॥


10
छल से धन को जोड़ कर, रखने की तदबीर ।
कच्चे मिट्टी कलश में, भर रखना ज्यों नीर ॥

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