प्रारब्ध Fate
1
अर्थ-वृद्धि के भाग्य से, हो आलस्य-अभाव ।
अर्थ-नाश के भाग्य से, हो आलस्य स्वभाव ॥
2
अर्थ-क्षयकर भाग्य तो, करे बुद्धि को मन्द ।
अर्थ-वृद्धिकर भाग्य तो, करे विशाल अमन्द ॥
3
गूढ़ शास्त्र सीखें बहुत, फिर भी अपना भाग्य ।
मन्द बुद्धि का हो अगर, हावी मांद्य अभाग्य ॥
4
जगत-प्रकृति है नियतिवश, दो प्रकार से भिन्न ।
श्रीयुत होना एक है, ज्ञान-प्राप्ति है भिन्न ॥
5
धन अर्जन करत समय, विधिवश यह हो जाय ।
बुरा बनेगा सब भला, बुरा भला बन जाय ॥
6
कठिन यत्न भी ना रखे, जो न रहा निज भाग ।
निकाले नहीं निकलता, जो है अपने भाग ॥
7
भाग्य-विद्यायक के किये, बिना भाग्य का योग ।
कोटि चयन के बाद भी, दुर्लभ है सुख-भोग ॥
8
दुःख बदे जो हैं उन्हें, यदि न दिलावें दैव ।
सुख से वंचित दीन सब, बनें विरक्त तदैव ॥
9
रमता है सुख-भोग में, फल दे जब सत्कर्म ।
गड़बड़ करना किसलिये, फल दे जब दुष्कर्म ॥
10
बढ़ कर भी प्रारब्ध से, क्या है शक्ति महान ।
जयी वही उसपर अगर, चाल चलावे आन ॥
अर्थ-वृद्धि के भाग्य से, हो आलस्य-अभाव ।
अर्थ-नाश के भाग्य से, हो आलस्य स्वभाव ॥
2
अर्थ-क्षयकर भाग्य तो, करे बुद्धि को मन्द ।
अर्थ-वृद्धिकर भाग्य तो, करे विशाल अमन्द ॥
3
गूढ़ शास्त्र सीखें बहुत, फिर भी अपना भाग्य ।
मन्द बुद्धि का हो अगर, हावी मांद्य अभाग्य ॥
4
जगत-प्रकृति है नियतिवश, दो प्रकार से भिन्न ।
श्रीयुत होना एक है, ज्ञान-प्राप्ति है भिन्न ॥
5
धन अर्जन करत समय, विधिवश यह हो जाय ।
बुरा बनेगा सब भला, बुरा भला बन जाय ॥
6
कठिन यत्न भी ना रखे, जो न रहा निज भाग ।
निकाले नहीं निकलता, जो है अपने भाग ॥
7
भाग्य-विद्यायक के किये, बिना भाग्य का योग ।
कोटि चयन के बाद भी, दुर्लभ है सुख-भोग ॥
8
दुःख बदे जो हैं उन्हें, यदि न दिलावें दैव ।
सुख से वंचित दीन सब, बनें विरक्त तदैव ॥
9
रमता है सुख-भोग में, फल दे जब सत्कर्म ।
गड़बड़ करना किसलिये, फल दे जब दुष्कर्म ॥
10
बढ़ कर भी प्रारब्ध से, क्या है शक्ति महान ।
जयी वही उसपर अगर, चाल चलावे आन ॥
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