कर्म में दृढ़ता Confidence in our did

1
दृढ़ रहना ही कर्म में, मन की दृढ़ता जान ।
दृढ़ता कहलाती नहीं, जो है दृढ़ता आन ॥


2
दुष्ट न करना, यदि हुआ, तो फिर न हो अधीर ।
मत यह है नीतिज्ञ का, दो पथ मानें मीर ॥


3
प्रकट किया कर्मान्त में, तो है योग्य सुधीर ।
प्रकट किया यदि बीच में, देगा अनन्त पीर ॥


4
कहना तो सब के लिये, रहता है आसान ।
करना जो जैसा कहे, है दुस्साध्य निदान ॥


5
कीर्ति दिला कर सचित को, कर्म-निष्ठता-बान ।
नृप पर डाल प्रभाव वह, पावेगी सम्मान ॥


6
संकल्पित सब वस्तुएँ, यथा किया संकल्प ।
संकल्पक का जायगा, यदि वह दृढ़-संकल्प ॥


7
तिरस्कार करना नहीं, छोटा क़द अवलोक ।
चलते भारी यान में, अक्ष-आणि सम लोग ॥


8
सोच समझ निश्चय किया, करने का जो कर्म ।
हिचके बिन अविलम्ब ही, कर देना वह कर्म ॥


 9
यद्यपि होगा बहुत दुख, दृढ़ता से काम ।
सुख-फल दायक ही रहा, जिसका शुभ परिणाम ॥

 10
अन्य विषय में सदृढ़ता, रखते सचिव सुजान ।
यदि दृढ़ता नहिं कर्म की, जग न करेगा मान ॥

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