संन्यास Non attachment

1
ज्यों ज्यों मिटती जायगी, जिस जिसमें आसक्ति ।
त्यों त्यों तद्‍गत दुःख से, मुक्त हो रहा व्यक्ति ॥


2
संन्यासी यदि बन गया, यहीं कई आनन्द ।
संन्यासी बन समय पर, यदि होना आनन्द ॥


3
दृढ़ता से करना दमन, पंचेन्द्रियगत राग ।
उनके प्रेरक वस्तु सब, करो एकदम त्याग ॥


4
सर्वसंग का त्याग ही, तप का है गुण-मूल ।
बन्धन फिर तप भंग कर, बने अविद्या-मूल ॥


5
भव- बन्धन को काटते, बोझा ही है देह ।
फिर औरों से तो कहो, क्यों संबन्ध- सनेह ॥


6
अहंकार ममकार को, जिसने किया समाप्त ।
देवों को अप्राप्य भी, लोक करेगा प्राप्त ॥


7
अनासक्त जो न हुए, पर हैं अति आसक्त ।
उनको लिपटें दुःख सब, और करें नहिं त्यक्त ॥


8
पूर्ण त्याग से पा चुके, मोक्ष- धाम वे धन्य ।
भव- बाधा के जाल में, फँसें मोह- वश अन्य ॥


9
मिटते ही आसक्ति के, होगी भव से मुक्ति ।
बनी रहेगी अन्यथा, अनित्यता की भुक्ति ॥


10
वीतराग के राग में, हो तेरा अनुराग ।
सुदृढ़ उसी में रागना, जिससे पाय विराग ॥

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