शत्रु-शक्ति का ज्ञान Knowledge about enemy power

1
रिपुता नामक है वही, असभ्यता-अवगाह ।
हँसी-मज़े में भी मनुज, उसकी करे न चाह ॥


2
धनु-हल-धारी कृषक से, करो भले ही वैर ।
वाणी-हल-धर कृषक से, करना छोड़ो वैर ॥


3
एकाकी रह जो करे, बहुत जनों से वैर ।
पागल से बढ़ कर रहा, बुद्धिहीन वह, खैर ॥


4
मित्र बना कर शत्रु को, जो करता व्यवहार ।
महिमा पर उस सभ्य की, टिकता है संसार ॥


5
अपना तो साथी नहीं, रिपु हैं दो, खुद एक ।
तो उनमें से ले बना, उचित सहायक एक ॥


6
पूर्व-ज्ञात हो परख कर, अथवा हा अज्ञात् ।
नाश-काल में छोड़ दो, शत्रु-मित्रता बात ॥


7
दुःख न कह उस मित्र से, यदि खुद उसे न ज्ञात ।
प्रकट न करना शत्रु से, कमज़ोरी की बात ॥


8
ढ़ंग समझ कर कर्म का, निज बल को कर चंड ।
अपनी रक्षा यदि करे, रिपु का मिटे घमंड ॥


 9
जब पौधा है काटना, जो तरु कांटेदार ।
बढ़ने पर घायल करे, छेदक का कर दार ॥


 10
जो रिपुओं के दर्प का, कर सकते नहिं नाश ।
निश्चय रिपु के फूँकते, होता उनका नाश ॥

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