वार वनिता

1
चाह नहीं है प्रेमवश, धनमूलक है चाह ।
ऐसी स्त्री का मधुर वच, ले लेता है आह ॥


2
मधुर वचन है बोलती, तोल लाभ का भाग ।
वेश्या के व्यवहार को, सोच समागम त्याग ॥


3
पण-स्त्री आलिंगन रहा, यों झूठा ही जान ।
ज्यों लिपटे तम-कोष्ठ में, मुरदे से अनजान ॥


4
रहता है परमार्थ में, जिनका मनोनियोग ।
अर्थ-अर्थिनी तुच्छ सुख, करते नहिं वे भोग ॥


5
सहज बुद्धि के साथ है, जिनका विशिष्ट ज्ञान ।
पण्य-स्त्री का तुच्छ सुख, भोगेंगे नहिं जान ॥


6
रूप-दृप्त हो तुच्छ सुख, जो देती हैं बेच ।
निज यश-पालक श्रेष्ठ जन, गले लगें नहिं, हेच ॥


7
करती है संभोग जो, लगा अन्य में चित्त ।
उससे गले लगे वही, जिसका चंचल चित्त ॥


8
जो स्त्री है मायाविनी, उसका भोग विलास ।
अविवेकी जन के लिये, रहा मोहिनी-पाश ॥


 9
वेश्या का कंधा मृदुल, भूषित है जो खूब ।
मूढ-नीच उस नरक में, रहते हैं कर डूब ॥

10
द्वैध-मना व्यभिचारिणी, मद्य, जुए का खेल ।
लक्ष्मी से जो त्यक्त हैं, उनका इनसे मेल ॥




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