स्त्री वश होना In Control of Women

1
स्त्री पर जो आसक्त हैं, उनको मिले न धर्म ।
अर्थार्थी के हित रहा, घृणित वस्तु वह कर्म ॥


2
स्त्री लोलुप की संपदा, वह है पौरुष-त्यक्त ।
लज्जास्पद बन कर बड़ी, लज्जित करती सख्त ॥


3
डरने की जो बान है, स्त्री से दब कर नीच ।
सदा रही लज्जाजनक, भले जनों के बीच ॥


4
गृहिणी से डर है जिसे, औ’ न मोक्ष की सिद्धि ।
उसकी कर्म-विदग्धता, पाती नहीं प्रसिद्धि ॥


5
पत्नी-भीरु सदा डरे, करने से वह कार्य ।
सज्जन लोगों के लिये, जो होते सत्कार्य ॥


6
जो डरते स्त्री-स्कंध से, जो है बाँस समान ।
यद्यपि रहते देव सम, उनका है नहिं मान ॥


7
स्त्री की आज्ञा पालता, जो पौरुष निर्लज्ज ॥
उससे बढ कर श्रेष्ठ है, स्त्री का स्त्रीत्व सलज्ज ॥


8
चारु मुखी वंछित वही, करते हैं जो कर्म ।
भरते कमी न मित्र की, करते नहीं सुधर्म ॥


 9
धर्म-कर्म औ’ प्रचुर धन, तथा अन्य जो काम ।
स्त्री के आज्ञापाल को, इनका नहिं अंजाम ॥


10
जिनका मन हो कर्मरत, औ’ जो हों धनवान ।
स्त्री-वशिता से उन्हें, कभी न है अज्ञान ॥

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