विधान God's law
विधान
1
‘हाथ न खींचूँ कर्म से, जो कुल हित कर्तव्य ।
इसके सम नहिं श्रेष्ठता, यों है जो मन्तव्य ॥
2
सत् प्रयत्न गंभीर मति, ये दोनों ही अंश ।
क्रियाशील जब हैं सतत, उन्नत होता वंश ॥
3
‘कुल को अन्नत में करूँ’, कहता है दृढ बात ।
तो आगे बढ़ कमर कस, दैव बँटावे हाथ ॥
4
कुल हित जो अविलम्ब ही, हैं प्रयत्न में चूर ।
अनजाने ही यत्न वह, बने सफलता पूर ॥
5
कुल अन्नति हित दोष बिन, जिसका है आचार ।
बन्धु बनाने को उसे, घेर रहा संसार ॥
6
स्वयं जनित निज वंश का, परिपालन का मान ।
अपनाना है मनुज को, उत्तम पौरुष जान ॥
7
महावीर रणक्षेत्र में, ज्यों हैं जिम्मेदार ।
त्यों है सुयोग्य व्यक्ति पर, निज कुटुंब का भार ॥
8
कुल-पालक का है नहीं, कोई अवसर खास ।
आलसवश मानी बने, तो होता है नाश ॥
9
जो होने देता नहीं, निज कुटुंब में दोष ।
उसका बने शरीर क्या, दुख-दर्दों का कोष ॥
10
योग्य व्यक्ति कुल में नहीं, जो थामेगा टेक ।
जड़ में विपदा काटते, गिर जाये कुल नेक ॥
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