जुआ Bet

1
चाह जुए की हो नहीं, यद्यपि जय स्वाधीन ।
जय भी तो कांटा सदृश, जिसे निगलता मीन ॥


2
लाभ, जुआरी, एक कर, फिर सौ को खो जाय ।
वह भी क्या सुख प्राप्ति का, जीवन-पथ पा जाय ॥


3
पासा फेंक सदा रहा, करते धन की आस ।
उसका धन औ’ आय सब, चलें शत्रु के पास ॥


4
करता यश का नाश है, दे कर सब दुख-जाल ।
और न कोई द्यूत सम, बनायगा कंगाल ॥


5
पासा, जुआ-घर तथा, हस्य-कुशलता मान ।
जुए को हठ से पकड़, निर्धन हुए निदान ॥


6
जुआरूप ज्येष्ठा जिन्हें, मूँह में लेती ड़ाल ।
उन्हें न मिलता पेट भर, भोगें दुख कराल ॥


7
द्यूत-भुमि में काल सब, जो करना है वास ।
करता पैतृक धन तथा, श्रेष्ठ गुणों का नाश ॥


8
पेरित मिथ्या-कर्म में, करके धन को नष्ट ।
दया-धर्म का नाश कर, जुआ दिलाता कष्ट ॥


9
रोटी कपड़ा संपदा, विद्या औ’ सम्मान ।
पाँचों नहिं उनके यहाँ, जिन्हें जुए की बान ॥


 10
खोते खोते धन सभी, यथा जुएँ में मोह ।
सहते सहते दुःख भी, है जीने में मोह ॥

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